Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद



उस समय तक राख ठंडी हो चुकी थी। सूरदास अटकल से द्वार की ओर झोंपड़े में घुसा; पर दो-तीन पग के बाद एकाएक पाँव भूबल में पड़ गया। ऊपर राख थी, लेकिन नीचे आग। तुरंत पाँव खींच लिया और अपनी लकड़ी से राख को उलटने-पलटने लगा, जिससे नीचे की आग भी जल्द राख हो जाए। आधा घंटे में उसने सारी राख नीचे से ऊपर कर दी, और तब फिर डरते-डरते राख में पैर रखा। राख गरम थी, पर असह्य न थी। उसने उसी जगह की सीधा में राख को टटोलना शुरू किया, जहाँ छप्पर में पोटली रखी थी। उसका दिल धड़क रहा था। उसे विश्वास था कि रुपये मिलें या न मिलें, पर चाँदी तो कहीं गई ही नहीं। सहसा वह उछल पड़ा, कोई भारी चीज हाथ लगी। उठा लिया; पर टटोलकर देखा, तो मालूम हुआ ईंट का टुकड़ा है। फिर टटोलने लगा, जैसे कोई आदमी पानी में मछलियाँ टटोले। कोई चीज हाथ न लगी। तब तो उसने नैराश्य की उतावली और अधीरता के साथ सारी राख छान डाली। एक-एक मुट्ठी राख हाथ में लेकर देखी। लोटा मिला, तवा मिला, किंतु पोटली न मिली। उसका वह पैर, जो अब तक सीढ़ी पर था, फिसल गया और अब वह अथाह गहराई में जा पड़ा। उसके मुख से सहसा एक चीख निकल आई। वह वहीं राख पर बैठ गया और बिलख-बिलखकर रोने लगा। यह फूस की राख न थी, उसकी अभिलाषाओं की राख थी। अपनी बेबसी का इतना दु:ख उसे कभी न हुआ था।

तड़का हो गया, सूरदास अब राख के ढेर को बटोरकर एक जगह कर रहा था। आशा से ज्यादा दीर्घजीवी और कोई वस्तु नहीं होती।
उसी समय जगधर आकर बोला-सूरे, सच कहना, तुम्हें मुझ पर तो सुभा नहीं है?
सूरे को सुभा तो था, पर उसने इसे छिपाकर कहा-तुम्हारे ऊपर क्यों सुभा करूँगा? तुमसे मेरी कौन-सी अदावत थी?
जगधर-मुहल्लेवाले तुम्हें भड़काएँगे, पर मैं भगवान से कहता हूँ, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता।
सूरदास-अब तो जो कुछ होना था, हो चुका। कौन जाने, किसी ने लगा दी, या किसी की चिलम से उड़कर लग गई? यह भी तो हो सकता है कि चूल्हे में आग रह गई हो। बिना जाने-बूझे किस पर सुभा करूँ?
जगधर-इसी से तुम्हें चिता दिया कि कहीं सुभे में मैं भी न मारा जाऊँ।
सूरदास-तुम्हारी तरफ से मेरा दिल साफ है।
जगधर को भैरों की बातों से अब यह विश्वास हो गया कि उसी की शरारत है। उसने सूरदास को रुलाने की बात कही थी। उस धमकी को इस तरह पूरा किया। वह वहाँ से सीधो भैरों के पास गया। वह चुपचाप बैठा नारियल का हुक्का पी रहा था, पर मुख से चिंता और घबराहट झलक रही थी। जगधर को देखते ही बोला-कुछ सुना; लोग क्या बातचीत कर रहे हैं?
जगधर-सब लोग तुम्हारे ऊपर सुभा करते हैं। नायकराम की धमकी तो तुमने अपने कानों से सुनी।
भैरों-यहाँ ऐसी धमकियों की परवा नहीं है। सबूत क्या है कि मैंने लगाई?
जगधर-सच कहो, तुम्हीं ने लगाई?
भैरों-हाँ, चुपके से एक दियासलाई लगा दी।
जगधर-मैं कुछ-कुछ पहले ही समझ गया था; पर यह तुमने बुरा किया। झोंपड़ी जलाने से क्या मिला? दो-चार दिन में फिर दूसरी झोंपड़ी तैयार हो जाएगी।
भैरों-कुछ हो, दिल की आग तो ठंडी हो गई! यह देखो!
यह कहकर उसने एक थैली दिखाई, जिसका रंग धुएँ से काला हो गया था। जगधर ने उत्सुक होकर पूछा-इसमें क्या है? अरे! इसमें तो रुपये भरे हुए हैं।
भैरों-यह सुभागी को बहका ले जाने का जरीबाना है।
जगधर-सच बताओ, ये रुपये कहाँ मिले?
भैरों-उसी झोंपड़े में। बड़े जतन से धरन की आड़ में रखे हुए थे। पाजी रोज राहगीरों को ठग-ठगकर पैसे लाता था, और इसी थैली में रखता था। मैंने गिने हैं। पाँच सौ से ऊपर हैं। न जाने कैसे इतने रुपये जमा हो गए! बचा को इन्हीं रुपयों की गरमी थी। अब गरमी निकल गई। अब देखूँ किस बल पर उछलते हैं। बिरादरी को भोज-भात देने का सामान हो गया। नहीं तो, इस बखत रुपये कहाँ मिलते? आजकल तो देखते ही हो, बल्लमटेरों के मारे बिकरी कितनी मंदी है।
जगधर-मेरी तो सलाह है कि रुपये उसे लौटा दो। बड़ी मसक्कत की कमाई है। हजम न होगी।
जगधर दिल का खोटा आदमी नहीं था; पर इस समय उसने यह सलाह उसे नेकनीयती से नहीं, हसद से दी थी। उसे यह असह्य था कि भैरों के हाथ इतने रुपये लग जाएँ। भैरों आधो रुपये उसे देता, तो शायद उसे तस्कीन हो जाती; पर भैरों से यह आशा न की जा सकती थी। बेपरवाही से बोला-मुझे अच्छी तरह हजम हो जाएगी। हाथ में आए हुए रुपये को नहीं लौटा सकता। उसने तो भीख ही माँगकर जमा किए हैं, गेहूँ तो नहीं तौला था।
जगधर-पुलिस सब खा जाएगी।
भैरों-सूरे पुलिस में न जाएगा। रो-धोकर चुप हो जाएगा।
जगधर-गरीब की हाय बड़ी जान-लेवा होती है।
भैरों-वह गरीब है! अंधा होने से ही गरीब हो गया? जो आदमी दूसरों की औरतों पर डोरे डाले, जिसके पास सैकड़ों रुपये जमा हों, जो दूसरों को रुपये उधर देता हो, वह गरीब है? गरीब जो कहो, तो हम-तुम हैं। घर में ढूँढ़ आओ, एक पूरा रुपया न निकलेगा। ऐसे पापियों को गरीब नहीं कहते। अब भी मेरे दिल का काँटा नहीं निकला। जब तक उसे रोते न देखूँगा, यह काँटा न निकलेगा। जिसने मेरी आबरू बिगाड़ दी, उसके साथ जो चाहे करूँ, मुझे पाप नहीं लग सकता।
जगधर का मन आज खोंचा लेकर गलियों का चक्कर लगाने में न लगा। छाती पर साँप लोट रहा था-इसे दम-के-दम में इतने रुपये मिल गए, अब मौज उड़ाएगा। तकदीर इस तरह खुलती है। यहाँ कभी पड़ा हुआ पैसा भी न मिला। पाप-पुन्न की कोई बात नहीं। मैं ही कौन दिन-भर पुन्न किया करता हूँ? दमड़ी-छदाम-कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ! बाट खोटे रखता हूँ, तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँवाने पर भी कुछ नहीं लगता। जानता हूँ, यह बुरा काम है; पर बाल-बचों को पालना भी तो जरूरी है। इसने ईमान खोया, तो कुछ लेकर खोया, गुनाह बेलज्जत नहीं रहा। अब दो-तीन दूकानों का और ठेका ले लेगा। ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ जाता, तो जिंदगानी सुफल हो जाती।

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